“सच की कलम और समाज की लड़ाई : मेरी पत्रकारिता की यात्रा”“खाद संकट से उठी आवाज़ : एक पत्रकार की आपबीती”“

surendra sagar
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मैं सुरेन्द्र सागर, एक पत्रकार,


जिसने कलम को केवल पेशा नहीं बल्कि समाज सेवा का माध्यम बनाया है।
गाँव–समाज में हो रहे अन्याय, शोषण और गलत कार्यों को
पिछले १८ वर्षों से मैंने बेखौफ उजागर किया है।

इस कलम की ताक़त से
कई असहायों को हिम्मत मिली,
कई पीड़ितों को न्याय की राह दिखी।
लेकिन आज हालात ऐसे हैं
कि मुझे पत्रकारिता में ही बदनामी झेलनी पड़ रही है।

यह स्थिति केवल विरोधियों की वजह से नहीं,
बल्कि समाज के भीतर की प्रतिस्पर्धा और
गलत सोच रखने वालों की वजह से भी बनी है।
हमारे गाँव में कई नए पत्रकार है  !
मैं, जो १८ वर्षों से काम कर रहा हूँ,
और दूसरा, जिसने हाल ही में पत्रकारिता शुरू की है।

मैंने पत्रकारिता को हमेशा सेवा माना,
समाज के लिए दिया,
पर बदले में कभी कमाने का साधन नहीं बनाया।
आज के दौर में,
पत्रकारिता भी संपर्क और पहुँच का खेल बन गई है।
यहीं से तुलना और गलतफहमी भी पैदा होती है।

मेरा रास्ता हमेशा साफ रहा –
सत्य को सामने लाना,
कमज़ोरों की आवाज़ उठाना,
और अन्याय का विरोध करना।
इसी राह पर चलते हुए
आज मुझ पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

असल घटना मल–खाद की समस्या से जुड़ी है।
गाँव ही नहीं, पूरा देश रासायनिक खाद की भारी कमी से जूझ रहा है।
सरकार ने सहकारी समितियों को
खाद वितरण की जिम्मेदारी दी है।

लेकिन वितरण की प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं है।
खाद हर किसान को चाहिए –
चाहे वह नेता हो, शिक्षक हो, व्यापारी हो या पत्रकार।
मगर पहुँच रखने वाले लोग
बिना कठिनाई के २–३ बोरी तक पाते हैं,
जबकि साधारण किसान
लाइन में लगकर भी खाली हाथ लौट जाते हैं।

जहाँ पूरे गाँव को ५०० बोरी की ज़रूरत है,
वहाँ मुश्किल से ५० बोरी पहुँचती है।
किसान खेती कैसे करे?

मैंने इस विषय पर दो बार समाचार बनाए,
जनप्रतिनिधियों से सुधार की अपेक्षा की।
लेकिन कोई ठोस पहल नहीं हुई।

मैं स्वयं भी किसान हूँ।
हर बार लाइन में लगकर
सभ्यता से इंतज़ार करता हूँ।
कई बार मुझे भी खाद नहीं मिला।

एक महीने बाद पुनः वितरण हुआ।
नियम के अनुसार एक व्यक्ति को २५ किलो मिलना था।
हम दो थे, तो ५० किलो मिला।

लेकिन मैंने देखा –
कई लोग २–३ बोरी लेकर जा रहे थे।
मैंने शांति से समिति से पूछा –
“जब दूसरों को मिल रहा है,
तो हमें भी मिलना चाहिए।”

शुरुआत में कहा गया – “मिल जाएगा।”
लेकिन जब आखिर में मैंने फिर पूछा,
तो सहकारी अध्यक्ष उत्तेजित हो गए।
उन्होंने मुझे अपमानित किया,
अशोभनीय शब्द कहे।

मैंने धैर्य रखा,
और वहीं से वीडियो रिकॉर्ड किया।
फिर समाचार बनाकर
समाज के सामने सच्चाई रखी।

उस खबर में मैंने यह भी स्पष्ट किया कि
जनप्रतिनिधि चाहें तो
न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर सकते हैं,
लेकिन वे चुप हैं।

यह समाचार छपते ही
सहकारी समिति, जनप्रतिनिधि,
और वे लोग जो बिना लाइन खाद पाते थे –
सब एक साथ मेरे खिलाफ हो गए।

इस माहौल में
मेरा साथ देने वाले भी
भीड़ देखकर चुप हो गए।
सच बोलने वालों की संख्या हमेशा कम होती है,
और गलत व्यवस्था का समर्थन करने वाले
हमेशा संगठित और शक्तिशाली होते हैं।

मुझे गहराई से महसूस हुआ –
सत्य की लड़ाई में
अक्सर इंसान को अकेला खड़ा होना पड़ता है।

आज मैं अकेला हूँ,
लेकिन इस अकेलेपन पर भी गर्व है।

क्योंकि मेरी कलम
स्वार्थ के लिए नहीं,
सिर्फ समाज के लिए चली है।

सहकारी की लापरवाही,
जनप्रतिनिधियों की उदासीनता,
और पहुँचधारियों का लालच
मैंने उजागर किया है।

अगर इसके बदले मुझे बदनामी मिलती है,
तो यह भी मेरी जीत है।

क्योंकि मेरी कलम की चोट से
झूठ उजागर होता है,
और सच सामने आता है।

आज मैं अकेला पत्रकार भले हूँ,
लेकिन मेरी आवाज़
सैकड़ों किसानों की आवाज़ है।

सच्ची पत्रकारिता यही है –
सत्य को लिखना,
अन्याय से लड़ना,
और समाज को आईना दिखाना।

मैं उसी रास्ते पर हूँ,
और कलम तब तक चलती रहेगी
जब तक समाज में न्याय की ज़रूरत है।

सुरेंद्र सागर!

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